यूं भी तो हो सकता है उसने कहा कुछ और हो... यूं भी तो हो सकता है वो ना काबिल ए गौर हो। यूं भी तो हो सकता है वो मुझसे खफा न हो... यूं भी तो सकता है ये अगली दफा न हो। ऐसी बातें सोच सोच कर सारी रात बिता दी... ये वो, ये वो करते-करते नाहक नींद गवाँ दी। जाने क्या क्या सोच रहा है ऐसा कैसा मन है... एक बात पर टिक ना पाए खुद से ही अनबन है। यूँ भी तो हो सकता है कि सबका ही मन हो ऐसा... मुझको अपना खास लगे, पर हो ये सबके जैसा। फिर तो शायद वो भी बैठा यूं ही जागता होगा... उसके मन का घोड़ा भी बेलगाम भागता होगा। पर यूँ भी तो हो सकता है वो ही सबसे हो जुदा .... मुझको मेरे ही मन से अब तो, तू ही बचा ऐ खुदा।
खूपच छान कविता
सगळे आपल्या मनाचे खेळ
पंण फार अस्वस्थ करणारे
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Nice one.
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मुझको मेरे ही मन से अब तो, तू ही बचा ऐ खुदा।
Bahut khoob,
Padh ke yu laga
Jaise mere mann ki bhavnaie
Aapne sabdou me pirou ke apne blog me likha…
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धन्यवाद
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