ग़ज़ल

चाहे हाथ ना हो बाग पे,ना पा हो रिकाब में
मर्जी हमारी हम जो जी चाहे,देखेंगे ख्वाब में।

मौत का एक दिन मुअय्यन है
क्यों डर के जीना छोड़ कर बैठें शिताब में

हारे हैं इश्क में,मगर उम्मीद है बाकी
सूखे गुलाब अब भी मिलेंगे किताब में।

मिलने का दिल हो,उठ के चले आते हैं खुद ही
कौन आया कितनी बार,नहीं रखते हिसाब में।

हमदर्द रतजगों में है ये दाग़दार चांद
ढूंढे सुकून कौन कहां आफताब में।

वैसे भी उनकी मुनसिफी पे था कहाँ यकीन
हमने ही सिफर लिख दिया है जवाब में।

ले लेते हैं कभी कभी गालिब से कुछ उधार
यूँ हीं चचा नहीं हैं वो अपने खिताब में।


              स्वाती
            

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