बाप रे बाप…११

 

पप्पा भोपाल में नौकरी करने लगे थे, लेकिन उनका वहाँ मन नहीं लगता था। सारे यार दोस्त,घर परिवार ग्वालियर में ही था । उम्र भी कम थी।

छुट्टी हो या ना हो, मौका मिलते ही बार-बार ग्वालियर भागते।

उनकी इस आदत को लेकर उनके RTO श्री चतुर्वेदी बहुत त्रस्त थे।

एक बार जब पप्पा उनके कमरे में पहुंचे, तो वहाँ कई लोग बैठे हुए थे। पप्पा ने जब छुट्टी की अर्ज़ी दी, तो वे काफी नाराज हो गये।

कहने लगे “इस तरह जब तुम्हारा मन हो, तुम उठ कर ग्वालियर नहीं जा सकते।”

पप्पा ने जब बहस लगाना शुरू किया, तो वे काफी नाराज हो गये।

बोले “तुम रिज़ाइन करके ही क्यों नहीं चले जाते। इस तरह बार-बार छुट्टी माँगने का झंझट खत्म होगा।”

पप्पा भी तैश में आ गये। उनके ही टेबल से एक कोरा कागज उठा कर, वहीं एक इस्तीफा लिख कर उनके सामने पटक दिया।

चतुर्वेदी साहब बहुत नाराज हो गये। वहाँ बैठे लोगों के बयान लेने लगे कि किस तरह पप्पा ने उनसे बदसलूकी की है।

पप्पा ने उनसे कहा “ किसी भी तरह की गलती की सबसे बड़ी सज़ा तो नौकरी से बर्खास्त करना ही है ना? अब जब मैँने खुद ही इस्तीफा दे दिया है ,तो इस सारे नाटक की ज़रूरत क्या है?”

वे बेहद चिड़ गये।

“नौकरी छोड़ने का ये कोई तरीका नहीं है। आप इस तरह नहीं जा सकते।”

“आपको जो करना है कर लो, मैं तो जा रहा हूँ।”

पप्पा ने कहा, और वहाँ से सीधे ग्वालियर चल पड़े।

वापस जा कर उन्होंने फिर वही सब पुराने काम धंधे शुरू कर दिये।

मेडिकल स्टोर तो था ही और भी यहाँ वहाँ नौकरी की तलाश में लग गये।

भोपाल से नोटिस पर नोटिस आ रहे थे। कभी कोई फाइल नहीं मिल रही, कभी कोई काम अधूरा रह गया इसलिए।

पप्पा जवाब भी नहीं देते थे।

आमदनी कम होने की वजह से घर में भी परेशानी हो ही रही थी। बहनों की पढाई का खर्चा भी बढ़ गया था।

नाना से पैसे मांगने का तो सवाल ही नहीं था।

इस दौरान का एक किस्सा पप्पा बताते हैं।

जेब में सिर्फ दो रुपये बाकी थे। चाहे जो भी हो उन दो रुपयों को पप्पा खर्च नहीं करते थे।

जेब में दो रुपये अब भी बाकी हैं ,इस बात का एहसास बड़ा सहारा देता था।

थोड़ी थोड़ी देर में जेब में हाथ डाल कर उन दो रुपयों को टटोलते। बड़ी तसल्ली मिलती थी ये सोच कर, कि अभी भी कुछ तो बाकी है।

घर के पास रहने वाले बिडवईकर के घर उनके बेटे की जनेऊ थी। उन्होने बेहद इसरार कर के पप्पा को खाने पर बुलाया।

बहुत से लोग थे। पंगत लगी हुई थी। पप्पा ने भी उस पंगत में पटे पर बैठ कर खाना खाया।

वहाँ से बाहर निकले। आदतन जेब में हाथ डाला, तो वे दो रुपये नदारद थे।

खाना खाने जब नीचे पटे पर बैठे, तब पॅन्ट की जेब से नीचे गिर गये थे।

दौड़ते हुए वापस पहुँचे, तो उनकी जगह कोई दुसरा व्यक्ति खाना खाने बैठा हुआ था।

पप्पा ने उस उठा कर खड़ा कर दिया। उसका पटा उठा कर देखा। जहाँ-जहाँ गये थे, उन सब जगहों पर देखा। हर आदमी से पूछा। लेकिन वह दो रुपये नहीं मिले।

पप्पा कहते हैं कि तब ऐसा लगा मानों खज़ाना लुट गया हो।

पप्पा ने जीवन में बहुत पैसा कमाया और बहुत गवाँया। लेकिन उन दो रुपयों के जाने से उनका जितना दिल टूटा वैसा फिर कभी नहीं हुआ।

पप्पा अक्सर बताते हैं, कि जीवन में कभी-कभी इतनी निराशाजनक परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं थीं कि आत्महत्या का विचार भी उनके मन में आ गया था।

लेकिन हर बार उन्होंने सोचा, कि जब खुद की जान खुद ही लेनी है, तो मामला अपने हाथ ही में है। एक आखरी कोशिश कर के देख ली जाए। जान उसके बाद दे देंगे। और फिर हर बार वह आखरी कोशिश वे इतनी जान लगा कर करते, कि नाकामी की कोई गुंजाइश ही ना छोड़ते।

आखिर उनके ही जीवन-मृत्यु का सवाल होती वह आखरी कोशिश। और उस परिस्थिती में उनके पास सफल होने के सिवा कोई पर्याय ही ना होता।

इसी तरह करीब आठ महीने निकल गये।

दूसरी नौकरी करने से पहले इस पहली नौकरी से छुटकारा पाना ज़रूरी है, ऐसा किसी ने बताया। फिर एक बार भोपाल चले ही गये।

ऑफिस में लोगों ने बताया, कि चतुर्वेदी साहब ने कहा है, कि जब भी आप आएं तो उनसे अवश्य मिलें।

उनसे मिलने पहुँचे, तो उन्होने बड़े प्यार से बात की। कहने लगे कि तुम नौकरी ज़रूर करने लगे हो, पर तुम्हारा बचपना नहीं गया है अभी भी।

पप्पा ने कहा “ इस बात का एहसास मुझे भी है। मैं भी इस बात से बहुत शर्मिंदा हूँ। सच में मैने बहुत बचकाना बर्ताव किया। अगर मुझे नौकरी छोड़नी ही थी,तो मैं ज़रा ग्रेसफुली भी छोड़ सकता था।”

“अब क्या करने का इरादा है?” उन्होंने पूछा।

“कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा। एक बार आप releive कर दें तो दुसरी नौकरी देखूँगा।”

“जब नौकरी ही करनी है तो यहीं क्यों नहीं करते?” उन्होंने पूछा।

“काम तुम्हें मालूम है। यहाँ भी तुम जैसे लड़के की ज़रूरत है। चलो जाओ और आज से ही काम शुरू कर दो।”

पप्पा उनके सह्रदयता से इतने विभोर हो गये ,कि तुरंत काम में लग गये। कुछ देर के बाद ऑफिस के बड़े बाबू पप्पा का इस्तीफा लेकर आ गये। उनके हाथ में थमा कर बोले        “ लो खुद ही फाड़ दो। इतने दिनों से साहब ने संभाल कर रखा था।”

कुछ महीनों बाद चतुर्वेदीजी का ट्रांसफर हो गया। जाने से पहले उन्होनें पप्पा को बुलाया और कहा कि मैं भूल ही गया था, लेकिन तुम जो आठ महीने नहीं आए थे, तब के हिसाब बाकी हैं ,तुम वह फाइल निकलवा लो। जाने से पहले जो हो सकेगा मैं कर देता हूँ।कुछ ना कुछ मिलना ही है।

फिर कुछ पेड और कुछ अनपेड इस तरह सब मिला कर पप्पा को आठ सौ रुपये मिल गये।

इतने सालों बाद भी पप्पा चतुर्वेदी जी को बड़े आदर से याद करते हैं। उनके जैसे बड़े दिल के लोग लगभग दुर्लभ ही होते हैं।

पैसे मिलते ही लोगों ने पार्टी का आग्रह शुरू किया।

तभी अचानक वली मियाँ नामक एक सज्जन ऑफिस आ पहुँचे। उन्हें जब पता लगा कि पप्पा को इतने पैसे मिले हैं तो कहने लगे कि मैं हज को जा रहा हूँ। ये पैसे आप मुझे दे दो, मैं लौटते समय आपके लिये एक बढ़िया इम्पोर्टेड घड़ी ले आऊँगा।

पप्पा के पास घड़ी नहीं थी। उन्होंने वली मियाँ को 600/- रुपये दे दिये।

कई महीनों बाद जब वली मियाँ हज से वापस लौटे तो तमाम लोगों के लिये कुछ ना कुछ ले कर आए थे। लेकिन पप्पा की घड़ी नहीं थी।

बोले “ मेरे पास सामान अधिक हो गया था। कस्टम वाले पकड़ लेते। लेकिन तुम चिंता मत करो, तुम्हारे पैसे मैनें किसी और मियाँ को दे दिये हैं। वो आते समय ले आएंगे।”

महीने भर बाद पप्पा ने फिर पूछताछ की तो बड़ा अफसोस मनाते हुए बोले कि वो मियाँ तो वहीं अल्लाह को प्यारे हो गये। लेकिन तुम चिंता मत करो। यदि कोई हज करते समय गुज़र जाए तो उसका कर्ज़ चुकाने की ज़िम्मेदारी उसके घर वालों की होती है। मैं बात करता हूँ। वो तुम्हारे पैसे ज़रूर वापस करेंगे।

आखिर सचमुच एक दिन उन्होंने वो पैसे वापस ला कर दिये। फिर पप्पा ने भोपाल से ही एक इम्पोर्टेड घड़ी खरीदी, जो अब भी चलती है और पप्पा कभी कभी उसे पहनते भी हैं। कभी उसके बारे में पूछ लिया जाए तो पप्पा से वली मियाँ की पूरी कहानी भी सुननी पड़ती है।

बाकी अगली बार….

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