लोटा

‘दिग्विजय सिंग डेव्हनपोर्ट’ यह उनका नाम जितना आकर्षक और रौबदार था, उतने ही सीधे-सादे वो खुद दिखते थे।

साँवला रंग, मध्यम कद-काठी, छोटी सी मूँछें, सुनहरी प्रेम का चश्मा, कुछ भी ऐसा नहीं था, जिसे विशेष कहा जा सके।

हर रविवार सपरिवार चर्च जाते। रोज सुबह-शाम खाना खाने से पहले बिना चूके प्रार्थना करते। दिग्विजय सिंग सही मायने में जॅन्टलमॅन थे।
अपने काम से काम रखते। नाप तौल कर बात करते। ना एक बात कम, ना एक बात ज्यादा। लेकिन जब भी किसी को मदद की जरूरत होती, तुरंत हाज़िर हो जाते।

लोगों की मदद करना वह अपना कर्तव्य ही नहीं, वरन परम सौभाग्य समझते थे। लोगों के मन में उनके प्रति आदरयुक्त डर था।

‘जरा कड़क, लेकिन अच्छा आदमी’ ये उनके बारे में आम राय थी।

उन्होंने जिन हालात में अपना गाँव छोड़ा, उसके बारे में वो किसी से भी बात करना पसंद नहीं करते थे।

राजस्थान के किसी छोटे से गाँव में कुछ जमीन उनके नाम पर थी, और कुछ दूर के रिश्तेदार थे, जो वर्षों से उस पर कब्जा जमाए बैठे थे।

लेकिन दिग्विजय सिंग कभी अपनी पत्नी या बच्चों को गाँव नहीं ले गए।

ना ही कभी उनका कोई रिश्तेदार गाँव से उनके घर ही आया था।

तीन-चार साल में कभी दो-चार दिन के लिए वह खुद अकेले ही गाँव हो आते थे, लेकिन वहां क्या हुआ, क्या किया, इसके बारे में कभी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा।

पत्नी से भी नहीं।

शुरू में पत्नी को उत्सुक्ता तो थी,लेकिन कहीं ये गाँव वाला चक्कर गले ही ना पड़ जाए, इस डर से उसने कभी अधिक रुचि नहीं दिखाई।

जब गाँव से पहली बार शहर आए थे, तो अपनी बुद्धिमत्ता के बलबूते पर उन्हें शहर में नौकरी मिलते देर नहीं लगी थी।

उनकी पत्नी के पिता, उनके बॉस के मित्र थे।

वे भी उसी दौरान अपनी बेटी के लिए किसी अच्छे राजपूत क्रिश्चियन लड़के की तलाश में थे। दिग्विजय सिंग भी अकेलेपन से उकता गए थे।

अब की मिसेस डेव्हेनपोर्ट ने उनके बारे में सिर्फ तारीफ ही सुनी थी। दिखने में वो खुद भी कोई हूर नहीं थीं।

तब उन्होंने सिर्फ एक ही सवाल पूछा था, कि वो वापस गाँव तो नहीं जाना चाहेंगे? अभी या कभी भी?

जब जवाब ‘नहीं’ में मिला तो उन्होंने शादी के लिए तुरंत हाँ कर दी थी।

दिग्विजय सिंग की शादी में कोई भी माँग नहीं थी।

लेकिन उनकी बस एक ही जिद थी। शादी के बाद अपनी पत्नी का नाम मॅरी से बदलकर उन्होंने माधुरी कर दिया।

मॅरी, जॉन, डेविड टाइप के निरर्थक नामों से उन्हें न जाने क्यों बेहद चिढ़ थी।

अपने इतने बड़े नाम का डीडी जैसा संक्षिप्तीकरण भी उन्हें सख्त नापसंद था।

माधुरी का मानना था कि वह बेहद पुरातन कालीन विचारों के हैं।

वे तो शादी के बाद से ही उन्हें बुढ़ऊ कहकर चिढ़ाने लगी थीं।

अपने बच्चों के नाम भी दिग्विजय सिंग ने प्रार्थना, आराधना और विश्वजीत सिंग रखे थे। प्रार्थना, आराधना और विश्वजीत जैसे नामों के बाद डेव्हनपोर्ट कुछ अजीब सा लगता था।

उस पर सभी बच्चों के नामों के स्पेलिंग भी खासे लंबे हो जाया करते थे।

इसलिए विश्वजीत ने डेव्हेनपोर्ट के स्थान पर अपना सरनेम सिर्फ सिंग लिखना शुरु कर दिया था।
माधुरी ने कुछ आपत्ति प्रकट की, लेकिन जब दिग्विजय सिंग कुछ नहीं बोले, तो लड़कियां भी अपने नाम के आगे सिर्फ सिंग ही लिखने लगी थीं।

प्रभु की कृपा से तीनों ही बच्चे पढ़ने में अच्छे निकले। यथावकाश दोनों लड़कियों के विवाह हुए। विश्वजीत को इंजीनियर बनते ही अच्छी नौकरी मिल गई। अपने साथ की ही एक लड़की से उसने शादी भी कर ली।

माधुरी इस विवाह से थोड़ी दुखी हुईं।

वह चाहती थीं कि उनकी बहू राजपूत क्रिश्चियन ना सही, सिर्फ राजपूत, या सिर्फ क्रिश्चियन ही होती, तो भी चल जाता।

कुछ तो अपनी परंपरा समझती।

लेकिन हमेशा की तरह दिग्विजय सिंग इस मामले में भी बिल्कुल आग्रही नहीं थे। एक तो वैसे ही उन्हें अधिक बात करना पसंद नहीं था, उस पर बीना बहुत अच्छी लड़की थी। विश्वजीत की पसंद की थी।

जात-पात पर उनका बिल्कुल विश्वास नहीं था।

वैसे तो माधुरी को भी एक जात की बात छोड़ दी जाए, तो बीना बहू के रुप में पसंद थी।

बेटा और बहू जब बराबरी से, बल्कि कुछ अधिक ही कमाने लगे, तब दिग्विजय सिंग ने सालों पहले खरीदे हुए प्लॉट पर एक बंगला बनवाया।

सारा इंटीरियर बहू बीना ने खुद किया

बंगला भी ऐसा बना, कि जिस पर सारे परिवार को नाज़ था।

लगभग सारे परिवार को।

एक दिग्विजय सिंग ही ऐसे थे, जो कभी अपने बंगले को देखकर माधुरी की तरह भाव विभोर नहीं हुए और ना ही कभी उन्होंने अपने बेटे, बहू और बेटियों की तरह अपने ही बंगले की तारीफों के पुल बांधे।

एक दफा जब बीना भी बहुत जिद करके पूछा, कि आपको नया घर कैसा लगा? आपने कभी बताया ही नहीं, तो बड़ी नपी तुली मुस्कान के साथ बोले “गुड, अच्छा है।”

बस इतना ही।

बीना का मुंह उतर गया।

माधुरी बहुत चिढ़ गई।

“मेरी तो पिछले 40 सालों में कभी तारीफ नहीं की। बोलने को ही तैयार नहीं कुछ। बुड्ढा बहुत अंदर की गाँठ का है।”

“अरे बुढ़ऊ, इतनी मेहनत की है उसने। कम से कम बच्ची का दिल रखने के लिए ही कुछ अच्छे शब्दों में तारीफ कर देते।”

“कहा तो अच्छा है।” दिग्विजय सिंग पेपर पढ़ते-पढ़ते बोले।

बंगले के पिछले हिस्से में दिक्षित साहब का परिवार रहता था।

दिक्षित दिग्विजय सिंग के ऑफिस में ही थे। उनसे कुछ जूनियर थे।

नागपुर से जब ट्रांसफर होकर आए, तब अच्छा मकान मिलना एक समस्या ही थी।

दिग्विजय सिंग ने उन्हें अपने ही घर में रख लिया था।

देखते-देखते दो साल गुजर गए। दोनों परिवारों में घनिष्टता बहुत बढ़ गई थी।अक्सर दोपहर की चाय इकट्ठे पीते।

दिक्षित पिछले महीने ही रिटायर हुए थे।

सामान की बाँधा बाँधी शुरु थी। बस चार दिन में ही वे नागपुर वापस जाने वाले थे।

वहां उनका मकान बनकर तैयार था।

सुबह-सुबह जब दिग्विजय सिंग घूमकर लौटे, तो दिक्षित के घर से जोर-जोर से आवाजें आ रहीं थी।

दिग्विजय सिंग और उनके परिवार ने काफी देर तक उपेक्षा की, लेकिन कान कोई कैसे बंद कर सकता है।

वैसे भी एक ही घर का हिस्सा होने की वजह से, यदि यहाँ चम्मच भी गिरे तो वहाँ आवाज आती है।

बहस अब काफी बढ़ चुकी थी। हर व्यक्ति जोर-जोर से अपनी बात कहने में लगा था।

“देखो घर बनवाते समय जैसा तुम लोगों ने चाहा, वैसा बनवाया। कितनी बार खर्च मेरी हैसियत से बाहर जाता रहा, लेकिन मैं चुप रहा। क्यों ? क्योंकि मैंने सोचा, एक ही बार तो मकान बनना है क्यों बेकार में तुम्हारा दिल तोडूँ? मेरी जिंदगी भर की कमाई लग गई इस मकान में। मैंने कहा कभी कुछ?”

“अब कल को अगर बीमार पड़ गया ना, तो अस्पताल के खर्चे के लिए भी दूसरों के आगे हाथ फैलाने पड़ जाएंगा।” दीक्षित चिल्लाए।

“तुम तो बात को कहीं से कहीं ले जाते हो। अब भला  इस बात का कोई मतलब है क्या यहां पर? इतनी सी बात पर इमोशनल होने की क्या जरूरत है? इतने साल तो संभाला है ना इस कचरे को? तो बस अब।”  मिसेस दीक्षित बोलीं।

“किसी दिन मेरे बारे में भी यही कहने लगोगे तुम लोग।”

“इन साले टीवी और फिल्म वालों को तो गोली से उड़ा देना चाहिए। हर दूसरी कहानी में बेटों को इतना नालायक बताते हैं, कि बस शादी हुई और बदल गया। आप वही सड़े गले सीरियल भक्ति भाव से देखते हो। उसी का असर हो गया है। आप क्या मुझे इतना बेईमान समझते हो कि यदि आप बीमार पड़े तो मैं अस्पताल का बिल भी नहीं भरूँगा।”

माधुरी अब अपने आप को रोक न सकी।

“कुछ अस्पताल की बात कर रहे हैं। जरा देख कर आती हूं। कोई बीमार तो नहीं है”

वे उठ कर चल दीं। पीछे-पीछे विश्वजीत और बीना भी जाने लगे।

“तुम लोग कहाँ जा रहे हो?” दिग्विजय सिंह ने पूछा।

“जरा देख कर आते हैं, क्या बात है?” विश्वजीत बोला।

दिक्षित के घर में जहाँ-तहाँ सामान बिखरा पड़ा था।

गठरियों,खोकों और बोरों के बीच दिक्षित, उनकी पत्नी, बेटा और बेटी बैठकर बहस लगा रहे थे।

“क्या हुआ कुछ परेशानी है क्या?” माधुरी ने घर में घुसते हुए पूछा।

“आंटी ये लोग तो पागल हो चुके हैं। मुद्दा क्या है? प्रॉब्लम क्या है? वह सब तो रहा एक तरफ, अब बिना मतलब की बातों पर बहस लगा रहे हैं।”

अनीता, दिक्षित साहब की बेटी ने बताया।

“तो प्रॉब्लम असल में है क्या ?” विश्वजीत ने पूछा।

“प्रॉब्लम असल में यह बम्ब है।” अनिल बोला।

“और प्रॉब्लम ये दिक्षित साहब भी  हैं।” मिसेस दिक्षित ने पति की ओर देख कर हाथ जोड़े।

“ये बम्ब क्या बला है?” बीना ने पूछा।

अनिल में एक तांबे का काला पड़ा हुआ बड़ा सा बर्तन सामने खींचा।

“यह हमारे पिता जी का प्रिय बम्ब। इसकी बीच वाली नली में लकड़ी या कोयला कुछ जलाते हैं। जिसकी वजह से यहाँ साइड में भरा हुआ पानी गर्म हो जाता है।”

“बड़ी एँटीक चीज है,”  बीना बोली।

“वो तो है ही भाभी। जब मैं 5 साल का था, तब से हमारे घर में पानी गर्म करने के लिए गीजर का इस्तेमाल हो रहा है।इसे हाथ लगाने का विचार भी नहीं आया कभी किसी के मन में।बिजली ना हो तब भी गॅस पर पानी गर्म करते हैं, इसमें नहीं। पिछले 20 सालों में पापा के पाँच ट्रांसफर हुए। हर जगह ये बिना मतलब का कचरा हमारे साथ घूम रहा है। बिना वजह ।” अनिल चिढ़ा हुआ था।

“कचरा तो मत कहो कम से कम।” दीक्षित आहत होकर बोले।

“सच ही तो कह रहा है अनिल। पिछले बीस सालों में कभी एक बार भी इस पर से धूल झाड़ी हो तो कसम है। एक घर के टाँड से उठाते हैं, और दूसरे घर के टाँड पर पटक देते हैं। सिर्फ इनकी खुशी के लिए। लेकिन कितने साल यही करते रहें?”

“अब फिर कहां इसे उठाकर ले जाएंगे? हम लोग कह रहे हैं, कि यही डाल देते हैं। तांबा है बिक जाएगा। लेकिन ये तो मानते ही नहीं बस जिद पर अड़े हैं।”

“लेकिन दिक्षित साहब आप इसका करोगे क्या? कभी इस्तेमाल होने वाली चीज हो, तो ठीक भी है। लेकिन ये तो सचमुच किसी काम का नहीं। बेच देंगे तो अच्छी कीमत आएगी। पुराना तांबा है आखिर।” माधुरी ने सहेली का साथ दिया।

“लेकिन मुझे नहीं बेचना भाई। एक ही तो चीज़ रह गई है पुराने दिनों की। कितनी जगह घेरेगा ऐसे? पड़ा रहेगा ना किसी कोने में। किसी को क्या तकलीफ है?”

“आप इसे ड्रॉइंग रूम में शो पीस की तरह रख लेना। अच्छा लगेगा।” बीना ने सलाह दी।

“और माँजेगा कौन रोज उठ कर? कोई काँच तो है नहीं कि धूल झटकी और काम हो गया। इमली लगानी पड़ती है तब कहीं साफ होता है। और वैसे भी इसे शोपीस तो सिर्फ तुम ही कह सकती हो बीना। मुझे तो इसमें कोई शो नहीं दिखता।”

“जिसे जो कहना हो कहे, लेकिन ये नहीं बिकेगा।” दिक्षित साहब ने बम्ब पर एक हाथ मारा। बहुत सी धूल उड़ी।

“तुम जो बिना वजह बर्तन खरीदती रहती हो? अनीता का मल्टीजिम?  अनिल की सैकड़ों सीडियाँ? कौन सी चीज़ इस्तेमाल होती है घर में? खैर… मैं बहस नहीं करना चाहता। घर मेरा भी है, और मैं चाहूँ कि अमुक चीज वहाँ हो, तो वो रहेगी। बस! बात खत्म।”

दीक्षित उठकर खड़े हो गए।

“ये तो बिल्कुल हमारे इनके जैसे हैं। ये आदमी लोग ऐसा दिखाते हैं कि उन्हें घर के बर्तन-भाँडों में कोई दिलचस्पी नहीं ,लेकिन सच तो ये है कि उनकी ही  जान अटकी रहती है इन बातों में। औरतें तो बिना वजह बदनाम हैं।”  ” माधुरी बोली।

“हमारे घर भी था इनका एक पुराना काँसे का लोटा। हँडिल वाला। उसे अपने कपड़ों की अलमारी में ऐसे सहेज कर रखते थे, जैसे कोहीनूर जड़ा हो उसमें।

शुरु-शुरु में तो कभी-कभार उसमें पानी भरकर भी पीते थे। फिर मैंने उठाकर गर्म कपड़ों के संदूक में डाल दिया था। सालों पड़ा रहा वहाँ। कभी याद भी नहीं आती थी उसकी। कौन इस्तेमाल करता है ऐसी चीजें आजकल? लेकिन कभी मैं कहूं कि बेच दो, तो ऐसे भड़क जाते की क्या कहूँ।”

“चलो बेचना नहीं हो, तो किसी गरीब को दे दो, काम ही आ जाएगा उसके। पर वो भी नहीं। अच्छा, कभी इस्तेमाल होने का जरा भी चाँस होता, तो भी आदमी सोचे की रहने दो। बाबा आदम के जमाने का लोटा। मुझे तो इतना गुस्सा आता था उस लोटे पर।”

सब उत्सुकता से कहानी सुनने लगे।

“फिर”  दीक्षित साहब ने पूछा।

“फिर क्या, जब इस घर में शिफ्ट हुए, तब मैंने तय किया कि उस लोटे को इस बार दे ही डालूँगी। पुराना सामान यदि घर से बाहर नहीं निकलेगा, तो नये के लिए जगह कैसे बनेगी?

“और वैसे भी आजकल कहते हैं ना कि जो चीज़ आपने पिछले छह महीने में इस्तेमाल नहीं की, आपको उसकी ज़रूरत ही नहीं है। लेकिन ये तो मानते ही नहीं थे। यहाँ तो मेरे किचन में बिल्कुल सामने सजा रखा था उसे। एक तो बिना वजह जगह घेरता और हर समय बीच बीच में आता रहता। ”

“फिर एक दिन मैं और बीना बाजार गए। इनको बिना बताए लोटा ले गए। लोटा दे  देकर उसके बदले में चम्मच का एक सेट लेकर आए ।बढ़िया क्वालिटी के चार सर्विंग स्पूनस् थे, कार्विंग वाले।”

“मुझे भी कुछ ऐसा ही करना पड़ेगा।” मैसेज दिक्षित बोलीं।

माधुरी ने बीना की तरफ देखा।

“मम्मी ने पापाजी को चम्मच दिखाकर पूछा कि ये कैसे हैं?  हमेशा की तरह बिना देखे ही  बोले अच्छे हैं। पर जब मम्मी ने बताया कि वह पुराने काँसे का लोटा बेच कर लाए हैं…

तो फिर बाप रे बाप… इतना गुस्सा !! उनका ऐसा रुद्रावतार पहले कभी किसी ने भी नहीं देखा था। मैं तो इतना डर गई थी।”

याद करके भी बीना के रोंगटे खड़े हो गए।

“ऐसा लगा मानो पागल हो गए हों। मुंह से एक शब्द भी नहीं बोले। लेकिन वह चम्मच उठाकर जोर से जमीन पर पटके…. और फिर एक एक का हँडल पकड़ कर पटकते रहे, जब तक सारे टूट नहीं गए।” माधुरी बताने लगी।

“मानों जुनून सवार हो गया था सिर पर।हम सब तो मारे डर के कमरे से भाग गये बाहर। कई दिनों तक किसी की हिम्मत नहीं थी उनसे बात करने की। ऐसे दिखने लगे थे मानों सालों से बीमार हों।”

“एक बार घर में चोरी हो गई थी, सारे जेवर गये थे मेरे। मैं दुखी हो रही थी, लेकिन तब भी इन पर कोई असर नहीं हुआ था। कहते थे जाने दो, कुछ सामान ही तो ले गया है चोर, तुम्हारी किस्मत तो नहीं ले गया।”

“और एक पुराने लोटे के लिए इतना तमाशा। पुराने जमाने में कहानियों में होता था ना, कि तोते में जान बसी है, वैसे ही इनकी मानों लोटे में जान थी।”

“कमाल है!  मैं तो समझती थी कि दुनिया की कोई भी बात भाई साहब को टस से मस नहीं कर सकती।  वो साधू संतों की तरह हैं, लेकिन….”

“आपका भी यदि यह ये बम्ब ऐसा ही खास हो, तो पहले ही बता दीजिए पापा।” अनीता बोली।

दिग्विजय सिंह ने काफी देर तक इंतजार किया, लेकिन जब बहुत देर तक कोई वापस नहीं लौटा और कोई आवाज भी नहीं आई, तो वह खुद ही देखने चल पड़े कि क्या बात है।

“क्या बात है दिक्षित? मदद की ज़रूरत है क्या?”

“कुछ नहीं सर।” दीक्षित ने उठकर उन्हें कुर्सी दी।

“ये एक पुराना बर्तन है सर,पानी गरम करने का। मुझे हमेशा से ठंड बहुत लगती है, तो पहली कमाई की सबसे पहली चीज अपने लिए यही खरीदी थी। हालांकि पिछले कई सालों से इस्तेमाल नहीं किया ,पर मेरी बहुत सी यादें हैं इससे जुड़ी। अब ये लोग कहते हैं कि इसे घर से बाहर निकाल दूं। मेरा मन नहीं होता।”

“ ये ..”  दिग्विजय सिंग ने बड़े प्यार से धूल से सने बम्ब पर हाथ फिराया।

“मत बेचो ना, क्या फर्क पड़ जाएगा यदि पड़ा रहा किसी कोने में।”

माधुरी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई।

“मेरे पास एक लोटा था।” दिग्विजय सिंह ने कहना शुरू किया।

“बढ़िया काँसे का लोटा था। फिरकी वाला ढक्कन था उसका। ऊपर पकड़ने को एक  हॅंडल भी था। एक साल जब बहुत अच्छी फसल हुई थी, तब माँ ने बहुत जिद की थी बापू से, ऐसा लोटा लाने के लिए। मैं भी गया था, उन दोनों के साथ लोटा खरीदने को। 10 साल का था  तब मैं।”

माधुरी आश्चर्य से देखने लगी। पहली बार वे दिग्विजय सिंग को अपनी पिछली जिंदगी के बारे में बोलते सुन रही थी।

“कितने लोटे देखकर अम्मा ने ये लोटा पसंद किया था। उस पर बड़े शौक से बापू का नाम डलवाया था उसने…. लखन सिंह राठौड़”

“फिर रोज सुबह अम्मा उसे राख से मांज कर चमकाती थी। मैं और बापू हँसते थे उस पर, इतनी देर तक माँजती थी। शीशे की तरह चमकता था। दोपहर में जब मैं बापू का खाना लेकर खेत पर जाता, तो पानी उसी लोटे में ले जाता था। एक बूंद पानी नहीं छलका कभी। ऐसा बढ़िया ढक्कन था।”

दिग्विजय सिंह जैसे वहां थे ही नहीं।

“फिर वह भयानक सूखा पड़ा। सब बर्बाद हो गये… गाँव के गाँव।

“घर का सारा सामान बिक गया, एक एक करके।

अम्मा इतनी जल्दी चली गई। कुछ नहीं कर सके। देखते रहे बस…

करते भी क्या? पैसे कहाँ थे दवा दारू के लिए।

लेकिन इतनी बीमारी में भी उसने वह लोटा नहीं बिकने दिया। उसके घर का सबसे मँहगा और अच्छा बर्तन था वह। बड़ा प्यार था उसे उस लोटे से। बापू का नाम था उस लोटे पर… लखन सिंह राठौड़”

दिग्विजय सिंग की आवाज थरथरा गई।

“फिर…. फिर हमारा खेत, वो जमीन का सूखा हुआ टुकड़ा, बहुत कोशिश की थी बापू ने उसे बेचने की, लेकिन कोई खरीदार ही नहीं मिला। सब की हालत खराब थी। कौन खरीदता?

अकेला बेटा था मैं उसका। बस मैं और वो, दोनों ही बचे थे हमारे परिवार में।

“लेकिन फिर भी मुश्किल था… बहुत ही मुश्किल समय था वह।”

“एक दिन मिशन स्कूल में छोड़ गया मुझे वो। उसके बाद बस एक ही बार मिलने आया था। बोला कुछ भी नहीं। कहने को कुछ था भी तो नहीं। बस वो लोटा दे गया था।

फिर नहीं मिला कभी। उसके मरने की खबर भी मुझे दो महींने बाद मिली। हाँ मरने से पहले जमीन का कागज मेरे नाम करा गया था। बस!”

“वो लोटा नहीं था। बीता हुआ समय था मेरा। मेरा सारा इतिहास था उस लोटे में। पहचान था मेरी।

लखन सिंग राठौड़ का नाम था उस पर। कौन कहां का दिग्विजय सिंग? बेच डाला इन्होंने दिग्विजय सिंग राठौड़ को। चार चमचों के बदले में।

शायद वही सही कीमत थी उस पहचान की।”

कमरे में सन्नाटा छा गया।

दिग्विजय सिंह ने बहते आंसू पोंछने की कोई कोशिश नहीं की।

“उसके बाद मैंने एक गांव में एक चिट्ठी भेज दी। जमीन भतीजों के नाम कर दी। वैसे भी बहुत दिनों से नजर थी उनकी उस जमीन पर। मैं ही फँसा हुआ था पुरानी यादों मे बिना वजह। और तो था ही क्या वहाँ?”

दिग्विजय सिंह उठ खड़े हुए। बम्ब पर हाथ रखकर कुछ देर उसे देखते रहे, और अचानक मुड़ कर बाहर निकल गये।

“बुढ़ऊ ने ये सब पहले कहा होता।” माधुरी थकी सी आवाज में बोली।

“सब मेरी ही गलती है।” बीना रोने लगी।

कमरे में कुछ देर तक स्तब्धता छाई रही। क्या बोलें किसी की समझ में नहीं आ रहा था।

अचानक विश्वजीत उठ खड़ा हुआ।

“वह लोटा किस दुकान में बेचा था तुमने?”

“लेकिन उसे तो एक साल से भी ज्यादा हो गया।”

“चलो फिर भी पूछें तो। एक बार कोशिश करके देखने में क्या हर्ज है, शायद वापस मिल जाए।”

2 thoughts on “लोटा

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  1. Very nice story. A short background, brief but a strong introduction of characters and just one normal and short incidence to get to the essence . It is touchy but ends on a positive note. Memories and stories attached to objects matter more than the utility or the ‘value’ of that object. Descriptions are good that you can imagine the characters. Enjoyed reading.

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