बाप रे बाप…६

 

पप्पा के घर के तीन नौकरों का जिक्र अक्सर अभी भी कोई ना कोई करता रहता है।

एक लालाराम, जो बेहद ईमानदार था और उम्र भर अभ्यंकरों का वफादार रहा।

दूसरा रामाजी, जो अनाथ था और बचपन में ही इनके घर आ गया था। बड़ा होने पर वह काका की दुकान में काम करने लगा था।

उसे शराब की लत लग गई थी।

एक बार दुकान से कुछ पेट्रोमॅक्स के लॅम्प चोरी हो गये। पुलिस बुलाई गई। उन्होंने रामाजी को जा पकड़ा। उसके पास से चोरी का माल भी बरामद किया गया।

काका बहुत ही भले इंसान थे। उन्हें रामाजी ने चोरी की, इस बात से अधिक अफसोस इस बात का था कि उसे चोरी करनी पड़ी। वे खुद को ही दोषी मान रहे थे, कि यदि उन्होंने उसका ठीक से खयाल रखा होता तो ये नौबत नहीं आती।

उन्होंने ना सिर्फ रामाजी को पुलिस से छुड़वाया, बल्कि उससे माफी भी माँग ली।

रामाजी उसके बाद इतना शर्मिंदा हुआ कि उसने दुकान का दरवाजा अंदर से लगा लिया।

दुकान में स्पीरिट, रॉकेल आदि रहता ही था । उसने खुद पर रॉकेल डाल कर आग लगा ली।

दरवाजा तोड़ कर उसे बाहर निकाल कर,  अस्पताल ले जाने तक उसकी मृत्यु हो गई ।

 

काका बेचारे बहुत सीधे साधे थे। रामाजी अनाथ था अतः उन्होंने उसका अंतिम संस्कार करना अपना कर्तव्य समझा । कुछ सोचा ना समझा, ना किसी को बताया वे और मुलुआ जा कर उसका क्रिया-कर्म कर आए।

हालांकि पप्पा तब बहुत छोटे थे,लेकिन जब उन्हें पता चला तब उनको ही ये खयाल आया कि ये आत्महत्या थी ,इसलिये पुलिस केस होगा ,तो पोस्टमॉर्टम होना ही चाहिये था। फिर गंगासेवक की मदद से उन्होंने खुद ही ये मामला खत्म किया।

तीसरा था मुलुआ, जो बहुत बूढ़ा होने तक जीवित था और हम लोग जब बचपन में ग्वालियर जाते तो हमसे मिलने आता। आते समय हमारे लिये चने, मूंगफली जैसा कुछ ना कुछ ले कर आता। हम लोग बहुत छोटे थे तब भी हमारे पाँव छूता । मुलुआ थोड़ा-थोड़ा बेईमान था।

पप्पा की एक मावशी पास ही में रहती थी। उन्हें पप्पा से बेहद लगाव था। पप्पा जब छोटे थे तब उन्होंने एक गाय भेंट दी थी। ताकि घर का दूध पी कर पप्पा की सेहत सुधरे। कुछ समय  के बाद गाय ने दूध देना बंद कर दिया।

मुलुआ बोला “इसे बिना वजह रोज चरने ले जाना पड़ता है।  पास के गाँव में मेरी ससुराल है, मैं इसे वहाँ छोड़ आता हूँ। बाकी गायों के साथ जंगल में चरती रहेगी। जब इसको बछड़ा होगा तो फिर दूध देने लगेगी ,तब मैं जा कर वापस ले आऊँगा।

फिर एक दिन पप्पा और मुलुआ सायकल पर जा कर गाय को  मुलुआ की ससुराल के गाँव में छोड़ आए।

फिर कई महीने गुजर गये। मुलुआ गाय का नाम ही ना ले।

जब पप्पा उसके पीछे ही पड़ गये तो बोला

“वो और गायों के साथ चरने जंगल में गई थी वहाँ उसे शेर खा गया।”

फिर जब पप्पा ने खुद गाँव जा कर पूछताछ करने की मंशा प्रकट की, तो वह खुद ही गाय का पता लगाने गाँव गया।

वापस आ कर उसने बताया कि मैं खुद अपनी आँखों से गाय का कंकाल देख कर आया हूँ। हालांकि सब जानते थे कि वह झूठ बोल रहा है, पर मुलुआ इतना पुराना नौकर था कि उसे निकालने की किसी की इच्छा नहीं थी।

फिर बात आई गई हो गई।

पप्पा हमेशा से ही बेहद accident prone रहे हैं। यदि कहीं अपघात हो रहा हो तो वे खुद ही जा कर उससे टकरा जाते हैं।

एक बार बाड़े पर एक बैल बेकाबू हो गया। वह बिगड़ कर इधर उधर दौड़ने लगा। लोग बचने के लिये चारों ओर भागने लगे।

पप्पा को तो दूर से तमाशा देखना अच्छा नहीं लगता। लोग क्यों भाग रहे हैं ये देखने के लिये वे भीड़ के बीच घुसे तो अचानक बैल के सामने ही पहुँच गये।

बैल ने गुस्से में सिर हिलाया तो उसका एक सींग पप्पा की कमीज़ में घुस गया। पप्पा बैल के सिर पर लटक गये। घबरा कर बैल ने जोर-जोर से सिर झटकना शुरू किया।

झटापटी में पप्पा की कमीज़ के बटन टूट गये और वे धड़ाम से नीचे जा गिरे।

बैल को कुछ समझ में आता इसके पहले उठे, और ऐसी दौड़ लगाई कि सीधे घर जा कर ही रुके। थोड़े लाल नीले हो गये होंगे लेकिन खरोंच भी नहीं आई थी।

पप्पा तब सातवीं में थे। काफी खेलते कूदते और खुराफातों में व्यस्त रहते। सिंगल बार डबल बार करने का तो विशेष शौक था।

एक दिन पेट में बहुत दर्द होने लगा। लगा खेलते समय कोई चोट लगी होगी। लेकिन दर्द ठीक होने की बजाय बढ़ता ही गया।

नाना को बताया। लेकिन उनके इलाज से भी कोई फायदा नहीं हुआ।

ग्वालियर के मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. सहाय थे, उन्हें दिखाया गया। दर्द इतना अधिक था, कि पप्पा की हालत खराब थी। डॉ. सहाय ने निदान किया कि पप्पा को लिव्हर एबसेस हो गया है। वे नाना से बोले “मेरे भतीजे को भी हो गया था।  सही वक्त पर निदान नहीं हो सका और उसका लिव्हर बर्स्ट हो गया। तुम्हारे बेटे की किस्मत अच्छी है कि समय रहते पता चल गया।”

उन्होंने इलाज शुरू किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। दर्द कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था। पप्पा का कहना है कि ऐसा दर्द उन्हें फिर कभी नहीं हुआ। उनका हार्निया strangulate हुआ था तब भी नहीं।

उन्हीं दिनों अचानक डॉ.सहाय का तबादला हो गया। उनकी जगह सीलोन से एक पारसी डॉ लीलावाला आ गये। वे अच्छी मराठी बोलते थे और पुरणपोऴी खाने के बड़े शौकीन थे।

नाना उनसे जा कर मिले।

उन्होंने पप्पा की जाँच की और बोले एबसेस तो तुम्हारे डॉक्टर के दिमाग में हो गया है। उन्होंने tabes mesenterica का निदान किया। उनके इलाज से पप्पा जल्दी ही ठीक हो गये।

काकी चाहती थी कि नाना बच्चों का खर्चा दें। नाना खुद तो कुछ देते नहीं थे। उनसे कहने की हिम्मत भी किसी की नहीं थी।काका काकी की तो हरगिज नहीं।

काका की आमदनी ठीकठाक थी, लेकिन घर में काका, काकी, उनकी बेटी विमल, पप्पा, शालू, मालू और आजी इन सात लोगों के अलावा दो-तीन नौकर और काकी के एक, दो रिश्तेदार भी थे। और खर्चा सिर्फ खाने का ही नहीं, इन तीनों की पढ़ाई और कपड़ों वगैरह का भी था।

काकी के रिश्तेदार जो सालों से उनके घर ही रह रहे थे, धीरे-धीरे उन्हें काकी ने खुद ही रवाना कर दिया।

पप्पा ने यदि नाना से कहा होता, तो उन्होंने कभी मना नहीं किया होता। लेकिन वो ये उम्मीद करते थे, कि नाना खुद बिना माँगे दें। रोज उनसे आठ आने तो ले लेते, लेकिन घर के खर्चे के लिए उनसे पैसे मांगने में शर्म महसूस होती थी।

जब बहनों को भी रोज काहो के घर जाने में शर्म आने लगी और काकी की किटकिट भी बहुत बढ़ गई, तो पप्पा ने खुद ही कुछ करने का विचार किया ।

 

बाकी अगली बार….

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